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17 Aug 2018

अटल थे, हैं, रहेंगे...

एक सामान्य हिंदी भाषी मध्यम वर्गीय परिवार में 1996 की किसी शाम का वक्त था. BPL के कर्व्ड टीवी पर जो कि कलर था लोकसभा का सीधा प्रसारण आ रहा था. उस परिवार में 5 साल का एक बच्चा ना चाहते हुए भी अपने टीवी पर अपने पापा और नानाजी की वजह से टीवी में आ रही उस लोकसभा की बहस को देख रहा था. कभी कभी बोरियत हो जाने पर अपने खिलौने उठाता और घरवालों का ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए टीवी स्टैंड के ठीक सामने खेलता. तभी टीवी पर एक बुजुर्ग आता है. कुछ खर्राई सी आवाज है, लंबे लंबे पॉज लेता हुआ वो बोलता है. अपनी खिलौने वाली कार हाथ में लिया वो लड़का हाफ पैंट पहने टीवी के सामने खड़ा होकर उस बुजुर्ग से दिख रहे आदमी को सुनने लगता है...

वो बुजुर्ग सा आदमी उस वक्त का देश का प्रधानमंत्री था यानि अटल विहारी वाजपेई जी. आगे बहस में जो होता है उस बच्चे को समझ नहीं आता लेकिन ये जरूर समझता है कि कुछ जरूरी चल रहा है. बच्चा उस आवाज में खो जाता है, उन अटलजी को निहारते रहता है. चंद मिनटों में उसे नाम भी रट जाता है. वो सोचता रहता है कि ऐसा क्या है कि मां रसोई छोड़कर टीवी के सामने हैं, नानाजी परेशान हैं और पापा ऑफिस नहीं जा रहे. इतने में घर में एक निराशा भरी आवाज आती है, अटल जी की सरकार गिर गई. रसोई में बन रहे खाने को घर के दोनों बड़े आदमी खाने से मना करते हैं. मां खुद के लिए भी खाना ना बना कर बच्चों के लिए खाना बनाती हैं और वो बच्चा भी बड़ा बनने की कोशिश में खाना नहीं खाता.

उस दिन से उस बच्चे को राजनीति अच्छी लगने लगती है और अटल जी हो जाते हैं आइडल... अगले कुछ महीनों या शायद सालों में अटल जी फिर चुनाव जीतते हैं. पीएम बनते हैं और अटल जी का क्रेज उस बच्चे के सर चढ़कर बोलने लगता है. दुबारा पीएम बनने से पहले हुए प्रचार में अटल जी अविभाजित मध्यप्रदेश के एक छोटे से शहर रायपुर में एक सभा करने आते हैं. उसी घर के वही नानाजी जिन्हें मोतियाबिंद की दिक्कत है वो अटलजी को सुनने के लिए अपनी लूना से जाने की बात करते हैं. रैली शाम की होने के कारण घर में उनकी बेटी दामाद उन्हें मना कर रहे होते हैं लेकिन वो नाती अपनी जुगाड़ में लग जाता है. नानाजी जाएंगे तो मैं भी जाउंगा की जिद के साथ वो भी रैली में जाने का अपना सपना पूरा करता है. 

मैदान में ढेर सारी होलोजन की लाइटें लगी होती हैं जो गर्मी बढ़ा रही होती हैं. तभी दूर से एक हेलिकॉप्टर चक्कर मारता दिखाई देता है. लोगों की खुशी तालियों में बदल जाती है. कुछ देर में अटल जी स्टेज पर होते हैं. सामने के डी और वीआईपी एरिया के बाद आम लोगों के लिए बने स्पेस में बांस बल्लियों पर वो बच्चा अपने नाना जी के पास लटक जाता है. तब रैलियों में लगने वाले भोंपू से वही टीवी वाली आवाज आती है. बहुत दूर में छोटे से हाथ हिलाते हुए माइक पर बोलते (चमकते) अटलजी दिखाई देते हैं. बच्चे का अटलजी को देखने का सपना पूरा हो जाता है. जैसे दशहरे, दूर्गा पूजा, गणेशोत्सव के मैदान से बच्चे खुशी खुशी लौटते हैं वैसे ही उत्साह के साथ अपने नाना की लूना में आगे पैरों को मोड़े, घुटनों को पेट में दबाए बैठा वो बच्चा घर वापस आता है.

इस बीच समय का पहिया घूमता है, नानाजी दुनिया में नहीं रहते. मध्यप्रदेश का वो छोटा सा शहर छत्तीसगढ़ की राजधानी में बदल जाता है. छत्तीसगढ़ बनाने का श्रेय भी अटलजी को जाता है. अटलजी एक बार फिर रायपुर आते हैं, इस बार राजधानी रायपुर में. वो बच्चा फिर अटलजी को देखने की जिद अपने पिता से करता है. ब्रीच कैंडी अस्पताल में घुटनों का इलाज कराने के बाद रायपुर आए अटलजी के लिए प्लेन से उतरने वाली लिफ्ट लगती है, आखों में काले एविएटर चश्मे पहने अटलजी बाहर निकलते हैं दूर खड़ा वो बच्चा उन्हें निहारता रह जाता है और सोचता है कि अटलजी तो पिछली बार से भी ज्यादा गोरे हो गए हैं.

बच्चे की उम्र से अंदाजा लग सकता है कि वो बच्चा तब अटलजी का फैन बन गया जब वो उनका वोटर तक नहीं बन सकता था. अटलजी आपमें ना जाने ऐसा क्या था कि उस दौर के हर बच्चे में ऐसी दीवनगी थी. वो नारा लिखा याद आज तक है "नजर अटल पर, वोट कमल पर" यानि सबकुछ अटल ही अटल. चुनाव प्रचार में लैंड लाइन में फोन पर आने वाली आवाज "मैं अटल विहारी वाजपेयी बोल रहा हूं" सुनकर सामने वाला अटलजी से बात होने के दावे करने लगता था. आपके प्रधानमंत्री रहते एक विज्ञापन आता था, "स्कूल चलें हम" विज्ञापन के मुताबिक वो आपकी ही कविता थी. वो शायद एकलौता सरकारी विज्ञापन होता होगा जिसे गुनगुनाने का मन करता था.

आप याद आएंगे अटलजी... कितने पीएम ऐसे हो सकते हैं जो कविता गाते दिखाई दें, अलबत्ता वो तो दो लाइन अर्ज करने से भी बचते हैं. कौन ऐसा प्रधानमंत्री हो सकता है जिसके सूप पीते, गोलगप्पे खाते विजुअल दिखें. आज किस पार्टी के शीर्ष नेता के हाथ पकड़ कर नचाने की हिम्मत कोई कार्यकर्ता कर सकता है. ऐसा कौन हो जो हमेशा मुसकुराता दिखाई दे सकता है. एपीजे अब्दुल कलाम साहब के साथ आपकी जोड़ी मुझे खूब पसंद थी, सुना था आप उन्हें हिंदी सिखाते थे. सर पर कैप, आंखो में एविएटर, बदन पर कुर्ता और कमर में बंधी धोती ये मिश्रण आप ही कर सकते थे. यूएन को देखना समझना आपसे शुरू हुआ क्योंकि आपने वहां हिंदी जो बोली थी.

जब वोटर नहीं थे तब आपके जीतने की दुआ करते थे. 2004 में लगा कि दुनिया 5 साल कैसे कटेगी. 2009 तक आप राजनीति से दूर हो गए. जब वोटर आई कार्ड हाथ में आया तो आप कैमरे, माइक पर दिखाई ही नहीं देते थे. आज तक किसी से कहा नहीं, पर आज लिख रहा हूं. राजनीति में एक ही नेता माना था अटल जी, वो आप थे. आपकी जगह कोई दूसरा ले नहीं सकता, शायद इसीलिए तबसे आजतक किसी भी चुनाव में वोट नहीं डाला. मालूम है आप दूर चले गए हैं. लेकिन आज के एचडी वीडियो भी आपकी उन क्लटर्ड और बज़िंग आवाज वाले भाषणों, कविताओं की जगह नहीं ले सकते. आप अटल हैं. ना कभी मेरे प्रिय नेता की जगह से हिले थे, ना कभी हिलेंगे. हमेशा अटल रहेंगे. 



27 Jul 2017

फिर से नीतीशे!

साभार - huffingtonpost
बिहार में बहार हो, नीतीशे कुमार हो! 2015 में ये लाइन बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान खूब सुनी थी, जिस जगह जाइए टीम पीके की ओर से तैयार ये गाना सुनाई देता था. तब शायद किसी ने नहीं सोचा था कि देश के सबसे अलग और प्रयोगधर्मी हो रहे इस चुनाव के करीब 20 महीने बाद ये शब्द तो जस के तय कायम होंगे लेकिन इस गाने में दिखने वाले नीतीश के अलावा सभी चेहरे बदल चुके होंगे. 2015 में बिहार विधानसभा में महागठबंधन ने भारतीय राजनीति में एक नए प्रयोग की शुरूआत की थी. दूसरे और तीसरे मोर्चे से अलग एक "महागठबंधन" की शुरूआत. देश में बेहद तेजी से बढ़ती बीजेपी को रोकने के लिए सभी विपक्षी दल एक हो गए थे. देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस भी राज्य में तीसरे नंबर की सहयोगी बनने को तैयार हो गई थी. लेकिन करीब 20 महीने बाद बिहार में फिर से नीतीश कुमार होने जा रहे हैं लेकिन इस बार महागठबंधन से गांठ अलग है, बंधन मुक्त हैं, महान लोकतंत्र जिंदाबाद के नारे लग रहे हैं.

26/07/2017 की शाम बिहार के लोगों के लिए एक खास शाम में बदल गई. एक ऐसी शाम जब लोग टीवी के सामने से उठ नहीं रहे होंगे. बिहार में चुनावों के दौरन जब लोगों ने "लालटेन" की रोशनी में "हाथों" में "तीर" देखा था तो कभी सोचा नहीं होगा कि ये "तीर" सीधा "कमल" के निशाने पर जा लगेगा. भारतीय राजनीति के वर्तमान दौर में नीतीश कुमार को शुचिता की राजनीति का सबसे मुफीद चेहरा माना जाता है. एक ऐसा व्यक्ति जिसके लिए विकास और ईमानदारी ज्यादा जरूरी है ना कि कुर्सी. जिस चेहरे पर कोई व्यक्तिगत आरोप नहीं लग सकते. लेकिन 26 जुलाई की शाम बिहार की राजनीति को एक साथ ज्वार भाटा देखने को मिला, काफी पानी चढ़ा भी और उथला भी.

साभार - @laluprasadrjd (Twitter)
बिहार के जदयू-राजद-कांग्रेस के इस गठबंधन के बनने की शुरूआत से ही इस पर सवाल उठ रहे थे कि इस बेमेल का मेल सिर्फ भाजपा को रोकने के लिए हुआ है या ये देश में नई राजनीति का आगाज है. लेकिन ये आगाज किसी अंजाम पर पहुंचने से पहले ही उस रूप पर पहुंच गया है जहां इसे परवान चढ़ाने वाले भी खुद को जला और ठगा महसूस कर रहे होंगे. खुद बिहार की सबसे बड़ी पार्टी के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव कहने को मजबूर हो गए कि हमने नीतीश को मुख्यमंत्री बनाया ना कि वो बने. ये अहसास दिलाते रहे कि वो सबसे बड़े दल और दिल के नेता हैं. लेकिन नीतीश ने भी दिखाया कि वो उसी रूप में राजनीति के दांव चलेंगे जिसके लिए वो जाने जाते हैं. इस पूरे घटनाक्रम में देश में सबसे ज्यादा समय तक राज करने वाली कांग्रेस एक लाचार दर्शक से ज्यादा कुछ नजर नहीं आई.

इस पूरे राजनैतिक घटनाक्रम को बिहार से बाहर होकर देखें तो पता चलता है कि बिहार में नंबर 2 बनने जा रही बीजेपी ने अपने इस मास्टर स्ट्रोक से देश की किसी भी पार्टी को नंबर 2 बनने लायक नहीं छोड़ा. 2017 के सबसे बड़े राजनैतिक ड्रामे का असर 2019 में साफ तौर पर पड़ेगा. जहां 26 जुलाई की दोपहर तक पीएम नरेंद्र मोदी के सामने 2019 की सबसे बड़ी चुनौती दिखाई दे रहे नीतीश कुमार उनके सबसे बड़े साथी बनकर खड़े होंगे. वहीं नीतीश के कंधे पर बंदूक रखकर राजनैतिक दांव की गोली चलाने वाले सभी विपक्षी दल एक अदद कंधे की तलाश में होंगे. नीतीश के बीजेपी से मिलने के बाद 2019 में विपक्ष का कोई भी ऐसा चेहरा दिखाई नहीं देता जो कि बीजेपी से टक्कर लेने लायक लगे. एक ओर जहां लालू प्रसाद यादव चुनाव लड़ने में सक्षम नहीं हैं तो वहीं मुलायम सिंह यादव रिटायर होते दिख रहे हैं. अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश से बाहर नहीं निकलना चाहते तो वहीं ममता की स्वीकार्यता बंगाल के बाहर नही है. मायावती का वोट बैंक बचा नहीं और राहुल के नाम पर वोट बैंक जुड़ने वाला नहीं. ऐसे में धुर विरोधियों को एक सूत्र में पिरोने वाले धागे को ही बीजेपी ने अपना माणिक बना कर बिहार के सिंहासन में सुशोभित कर दिया है.

साभार - @NitishKumar (Twitter)
लेकिन इस एक शाम में काफी कुछ बदला भी है. नीतीश कुमार अब देश के सबसे बड़े अवसरवादी दिखाई दे रहे हैं. जीतन राम मांझी को हटाकर दुबारा मुख्यमंत्री बनना और महागठबंधन तोड़कर बीजेपी के साथ सरकार बनाना इस तरीके से दिख रहा है जैसे नीतीश को कुर्सी से बेहद लगाव है. लालू प्रसाद यादव देश के सबसे बड़े भ्रष्टाचारी दिखाई पड़ रहे हैं और उनके साथ खड़ा हर शख्स बेईमान होने का सर्टिफिकेट पाने को तैयार है. एक शाम में साफ सुथरे नीतीश हत्यारे हो गए तो वहीं बीजेपी का साथ राम राज्य की एंट्री का टिकट बन गया है.

हालांकि कुछ चीजें देखी जाएं तो लगता है कि सब अचानक नहीं है. ये सब उसी शाम को क्यों होता है जब लालू प्रसाद यादव को पटना छोड़कर रांची जाना होता है? क्या इसलिए ताकि वो इस झटके को मैनेज करने का समय ना पा सकें? आखिर नीतीश कुमार तेजस्वी को निशाना बनाना चाहते हैं तो क्यों नहीं वो उन पर एक्शन लेकर इंतजार करते कि लालू ही सरकार से हाथ खीच लें और जनता को सब देखने समझने का मौका मिले? आखिर क्यों नीतीश और लालू जनता को वो सोचने को मजबूर कर रहे हैं जो वो सोचना और जानना नहीं चाहती थी? आखिर कैसे नीतीश कुमार को निशाने पर लेने वाली भाजपा उन्हें अपने बीच पाकर खुश नजर आने लगती है...

सवाल और विश्लेषण चलते रहेंगे. राजनीति यही है जो कभी रूकती और थमती नहीं. जिस दिन सब टूटता सा लगता है वो खामोशी से निकल जाता है. जब हर जगह खामोशी होती है तभी सबकुछ टूट जाता है. सरकार अब भी सरकार हैं, कल तक साथ खड़ा सहयोगी अब किनारे लगा दिया गया है, किनारे का बिछड़ा हुआ पड़ोसी अब फिर साथी हो गया है. जो नहीं मिला वो एक अदद सवाल का जवाब है कि - जिन आरोपों के चलते एक शाम में सब बदल गया उसका क्या होगा? क्या कोई जेल जाएगा या कुर्सी पर आने के बाद "जनता न्याय करेगी" का जुमला चल जाएगा. 
बहरहाल, फिर से एक बार है... नीतीशे कुमार है...


18 Jan 2017

नेता तुम ही हो कल के!

साभार - अखिलेश यादव (ट्विटर)
16.01.2017, उत्तर प्रदेश के इस दिन के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के लिए ये तारीख हमेशा याद रखने वाली तारीख होगी. इस दिन ना केवल उन्हें पार्टी की कमान मिली बल्कि इसी दिन वो सारी लड़ाइयों को जीतते हुए उस मुकाम पर पहुंच गए जहां शायद उन्हें खुद उत्तर प्रदेश की सियासत के नेताजी यानि मुलायम सिंह यादव नहीं पहुंचा सकते थे. मुलायम वो लड़ाई हारे जिसकी हार में भी उनकी जीत नजर आती है. कौन पिता नहीं चाहेगा कि बेटा उससे भी काबिल साबित हो जाए. अपनी सारी जिंदगी राजनीतिक पटखनी देने वाले मुलायम सिंह को बेटे की ओर से मिली ये पटखनी भी आराम देती करवट ही लग रही होगी.

दरअसल मुलायम सिंह यादव ने जिस राजनीतिक बिसात को बिछाया उसे समझना हमेशा से एक टेढ़ी खीर रहा है. हो सकता है कि ये आंकलन भी कल को गलत साबित हो लेकिन मुलायम सिंह यादव के घर से अखिलेश यादव के घर के बीच की दूरी दिनों तक पैदल पार करते करते उस राजनीतिक उठा पटक की धमक को कुछ महसूस तो साफ तौर पर किया. ये एक ऐसी कहानी है जिसमें अगर फिल्म बने तो सबकुछ मिलेगा. त्याग, प्रेम, समर्पण, चालाकी, ईमानदारी, बेइमानी, जलन और ना जाने क्या क्या. और तो और फिल्म का क्लाइमैक्स भी आम हिंदी फिल्म की तरह हैप्पी एंडिंग पर हुआ.

साभार - अखिलेश यादव (ट्विटर)
2016 में अखिलेश यादव अपनी ही पार्टी से बाहर हो जाते हैं और 2017 में उसी पार्टी के सर्वे-सर्वा भी. अगर सब कुछ मुमकिन है तो सिर्फ वहां जहां मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक दांव चलते हों. पूरी जिंदगी जीतने वाला पिता अगर अपने बेटे से हार जाए तो क्या वो दुखी हो सकता है? क्या देश के पीएम से लेकर पीएम बनाने वालों तक को गच्चा देने वाले मुलायम सिंह यादव इतने कच्चे हो सकते हैं कि अपने बेटे के दांव से हार जाएं? साहब, सब कुछ स्क्रिप्ट नहीं तो सबकुछ ऐसा भी नहीं था जिसे मुलायम जानते और समझते ना हों. हर अनुष्ठान की वेदि पर एक बलि होती है. यहां बलि राजनैतिक करियर की ले ली गई. किसके ये सब समझ रहे हैं. प्यार से कभी उन्हें चाचा भी कहा जाता था.

जो मुलायम ये कहते हैं कि अखिलेश उनकी नहीं सुनता, वो बेटे अखिलेश को उन्हीं को हराने पर आशीर्वाद दे देते हैं! अगर बेटे ने सरकार नहीं चलाई तो राजा का न्याय तो कहता कि बेटे को जिम्मेदारी का एहसास कराया जाता, लेकिन क्या ऐसा हुआ. बाप बेटे के सामने लोहा नजर आता रहा तो बेटा भी फौलाद बन गया. ये ठीक ऐसा ही है कि पिता ने जोरदार गेंद फेंकी, लेकिन बेटे ने छक्का मारकर गेंद को मैदान के बाहर कर दिया. पिता के चेहरे पर एक मुस्कुराहट थी, क्योंकि उसने तो सिर्फ गेंद को खेलना सिखाया था, बेटा तो छक्का मारने लगा.

साभार - अखिलेश यादव (ट्विटर)
दरअसल मुलायम चाह के भी पार्टी में ऐसी पकड़ अखिलेश को नहीं दे सकते थे. अगर वो खुद पार्टी की कमान अखिलेश के हाथों सौंंपते तो वंशवाद से लेकर तमाम आरोप लगते. पार्टी में अखिलेश विरोधी मुलायम के कारण शायद चुप होते लेकिन बगावत की गुंजाइश खत्म नहीं होती. अब अखिलेश यादव नायक बनकर उभरे हैं. जिसने सीधा मुलायम सिंह यादव को हरा दिया हो उससे भला कौन लड़ेगा. इस वार में नेताजी का सिंहासन बस हिला लेकिन चाचा शिवपाल की राजनीति खत्म हो गई. वो राजनीति जिसके संघर्षों के किस्से खुद मुलायम कहते फिरते थे.

मुलायम की खासियत ही उनका दांव होता है. किसी को पता नहीं चलता कि क्या करेंगे. जिस दिन बेटे को अल्पसंख्यक वोट तोड़ने वाला बताया उसी रात जीत का आशीर्वाद भी दे दिया. शिवपाल को संघर्षों का साथी बताया, लेकिन शिवपाल को कमजोरी का एहसास भी करा दिया. अगर नेताजी चाहते तो एक एक विधायक को फोन करके अपने पास बुला सकते थे, लेकिन उन्होंने किसी को रोका तक नहीं. राजनीति में अक्सर जो दिखता है वही नहीं होता. और हुआ यही.

साभार - अखिलेश यादव (ट्विटर)
अखिलेश और मुलायम के घर के बीच में एक दरवाजा है. बिना घर से बाहर निकले ही दोनों एक दूसरे के यहां आ जा सकते हैं. वो दरवाजा कभी बंद नहीं होता, बस सरका दिया जाता है. यही हुआ. नेताजी दो नावों पर पांव रखना चाहते थे, उन्होंने रखा भी. एक नाव दिखती रही, दूसरी नहीं दिखी. और अब नेताजी ने दिखने वाली नाव को डूबने दिया. वो खुद तो उस ना दिखने वाली नाव पर सवार हैं. पर बाकि डूब रहे हैं, और कह रहे हैं कि अखिलेश, नेता तुम ही हो कल के...

21 Jun 2016

अपनी महत्ता को "कट" ना करिए

कट, शॉट्स, कोर्ट, फिल्म... ये वो शब्द हैं जो पिछले सप्ताह में सबसे ज्यादा सुने गए हैं. संदर्भ साफ तौर पर उड़ता पंजाब है. इस फिल्म की रीलीज से ठीक पहले उपजे विवाद ने इस फिल्म को और ज्यादा सुर्खियों में ला दिया. हालांकि उड़ता पंजाब के साथ अनुराग कश्यप जैसा नाम जुड़ा था. इस कारण ये तो साफ था कि इस फिल्म को दर्शकों का एक वर्ग देखने जरूर जाएगा. लेकिन हालिया विवाद ने लोगों में इस फिल्म के प्रति एक अलग सोच जगा दी. देश में फिल्म प्रमाणन के लिए बनाए गए केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड ने इस फिल्म को ये कहते हुए रीलीज से पहले रोक दिया कि इस फिल्म में तमाम जगहों पर कट्स और फिल्म के नाम में बदलाव की जरूरत है. शायद ये फिल्म कट्स के साथ आती तो हम समझ नहीं पाते कि इसमें गलत क्या है. लेकिन एक लड़ाई हुई, मामला पहुंचा कोर्ट में, और कोर्ट के आदेश के बाद फिल्म पहुंची सिनेमाघरों में वो भी सिर्फ एक कट के साथ. हालांकि मैं फिल्मों का प्रशंसक हूं (आलोचकों की श्रेणी से अलग रखें) लेकिन मैंने ऐसा फिल्म प्रमाण पत्र पहले नहीं देखा था जिसमें लिखा हो कि फिल्म को कोर्ट ने पास किया है. खैर तमाम विवादों के बाद फिल्म सिनेमा घर में पहुंची. लेकिन फिल्म देखने के बाद जो सवाल मन में कौंधते हैं वो ये कि क्या फिल्म को लेकर जो कुछ कहा गया, वो जरूरी था?

2 घंटे और 28 मिनट की इस फिल्म को देखकर कहीं भी ये महसूस नहीं होता कि इस फिल्म में, कम से कम जो दिखाई जा रही है उसमें किसी भी तरीके के किसी कट की जरूरत थी. अगर आप गालियों से परेशान हैं तो ये बताइए कि क्या इस देश के वयस्कों को गाली-गलौच की कोई जानकारी नहीं है? अगर कोई परिवार ऐसी फिल्म देखने जा रहा है तो उस पर क्या फर्क पड़ेगा जैसे तर्क क्या इससे पहले उन फिल्मों में लागू नहीं होते जो गालियों से भरी पड़ी हों. और अगर आपको उन चंद द्विअर्थी शब्दों की चिंता है तो इससे पहले बड़े-बड़े पोस्टरों के साथ रीलीज होने वाली देश की वल्गर कॉमेडी फिल्मों के बारे में प्रमाणन बोर्ड को चिंता क्यों नहीं हुई? दरअसल फिल्मों को हम समाज का आइना तो जरूर कहते हैं लेकिन पता नहीं क्यों एक अजीब सी लकीर खींचना चाहते हैं. इस तरह की फिल्मों को रोकना जो किसी समस्या को, किसी वास्तविक क्षेत्र के नाम को लेकर बनती हों रोकना क्या उस समस्या पर रोक लगाना है या समाज और देश में फैली उस समस्या को ढकना है? फिल्म प्रमाणन बोर्ड का काम क्या है ये वो बेहतर जान सकते हैं पर आलोचनाओं को रोकना और संस्कृति के नाम पर हॉलीवुड फिल्मों की सेंसरशिप करना (इससे पहले पहलाज निहलानी की जेम्स बांड फिल्म की सेंसरशिप को लेकर काफी आलोचना हो चुकी है और वो ट्विटर पर संस्कारी जेम्स बांड के नाम से ट्रेंड भी कर चुके हैं) एक सवाल जरूर खड़े करता है.

CBFC के उपर इससे पहले भी सवाल खड़े होते रहे हैं. लोकतंत्र में आलोचना और सवालों का उठना कुछ गलत नहीं है. लेकिन देश का संविधान जिस अभिव्यक्ति की आजादी की स्वतंत्रता देता है वो आजादी की स्वतंत्रता दिखाई कहां देती है? हमारे देश में सबसे ज्यादा फिल्में बनती हैं. क्षेत्रिय सिनेमा को शामिल कर लिया जाए तो आज भारत में फिल्म उद्योग काफी लोगों को रोजगार देता है. लेकिन इसके बावजूद हमारे देश में सशक्त सिनेमा की काफी कमी देखने को मिलती है, उसका कारण क्या इस तरीके की रोकें और सीमितताएं हैं? एक ओर जहां हॉलिवुड में फिल्मों में वो अपने देश के राजनेताओं को, राष्ट्रीय झंडे को, असली जगहों को, इमारतों को बड़ी आसानी से दिखा सकते हैं वहीं हमारे यहां ये फिल्मों की सेंसरशिप के कारण बन जाते हैं. फिल्में क्रांति का कारण भी रही हैं. लेकिन हम शायद उसे वैसे देखना नहीं चाहते. आज भी कई फिल्मों के बारे में जब हमारे घर के बड़े बताते हैं कि इस फिल्म में उस फलाने का किरदार निभाया गया था या ये फिल्म अंग्रेजों के खिलाफ थी तो उसमें साफ विरोध ना होना समझ आता है. लेकिन आज के दौर में सिल्वर स्क्रीन से होने वाली आलोचना को रोकने के लिए सेंसरशिप का डर दिखाना खुला नहीं बल्कि गुलामी का माहौल तैयार करता है. 

फिल्मों को बनाने वालों के मन में हमेशा ये बात रहती है कि जो वो दिखाना चाहते हैं उसमें जो कुछ स्वीकार्य ना हो उसे छोड़कर बाकि को सिल्वर स्क्रीन पर दिखाने की अनुमति मिल जाएगी. मैं ये नहीं कहूंगा कि देश में कोई खास माहौल चल रहा है. देश में फिल्म निर्माताओं को हमेशा सेंसरबोर्ड से दिक्कत रहती है साथ ही इस देश के सिस्टम से भी (एक बार प्रकाश झा से बातचीत की थी, उसका संदर्भ भी कुछ ऐसा था ) लेकिन अगर ऐसा माहौल नहीं है तो भी ऐसा माहौल बनने ना दिया जाए. जब हम उन फिल्मों को पास कर सकते हैं जो कि सेक्स स्टोरी को पेश करती हैं, हालांकि मैं उनका भी विरोध नहीं करता पर क्या वो हमारी संस्कृति में फिट बैठती हैं? जब हम उन फिल्मों को नहीं रोकते जो कि कॉमेडी के नाम पर अश्लीलता को परोसती हैं, जब हम उन फिल्मों
को नहीं रोकते जो कि शरीर को, गालियों को परोसती हैं तो फिर हमें किसी राज्य के नाम से दिक्कत क्यों होती है? फिल्मों में अक्सर सच्ची कहानियों को शामिल किया जाता है. तो उड़ता पंजाब से क्या दिक्कत है? क्या पंजाब में ड्रग्स की कोई समस्या नहीं है? क्या सेंसर बोर्ड ऐसा कोई सर्टिफिकेट दे सकता है? नहीं. तो फिर आप किसी घटना पर आधारित फिल्म में जगहों के नाम, किसी खास चीजों को दिखाने से क्यों रोकना चाहते हैं?

दरअसल आज का युवा अपने देश में एक स्वतंत्रता चाहता है, आप उसे प्रेरित करिए बांधिए मत. फिल्म में कुछ ऐसा होगा जो देखना नहीं चाहिए तो वो नहीं देखी जाएगी. जब इस देश का प्रधानमंत्री सेल्फ अटेस्टेशन का ये बोलकर समर्थन करता है कि हमें अपने देश के लोगों पर भरोसा करना सीखना होगा तो फिर किसी और को इस सिस्टम में क्या दिक्कत है? कोर्ट ने अपने फैसले में जो कुछ भी कहा है वो काबीले तारीफ है. हमें चाहिए कि हम ये तय करें कि क्या देखने लायक है और क्या नहीं. अगर समस्या पर नजर नहीं डालेंगे तो समस्या खत्म नहीं हो जाएगी. अगर कोई दिक्कत है तो उस ओर ध्यान देना होगा. दिक्कत नहीं भी है तो क्या कोई फिल्म फिक्शन नहीं हो सकती? मेरी पसंदीदा फिल्मों में से एक व्हाइट हाउस डाउन में अमेरिकी राष्ट्रपति भवन में हमला होने की कहानी है, क्या ये दिखाने से लोगों ने मान लिया कि ऐसा कुछ हो सकता है? नहीं तो फिर सेंसर बोर्ड ने एक फिल्म को रोकने की ऐसी कोशिश क्यों कि जिसे कोर्ट से मुंह की खानी पड़ी हो? सरकारी सिस्टमों को बाबूगिरी से बाहर अपनी छवि बनाने की जरूरत है वरना जिस माहौल की हवा बनाई जा रही है लोगों को वो माहौल महसूस होने लगेगा. हम लोकतंत्र में हैं आजाद है, उड़ रहे हैं. ये उड़ान ड्रग्स की नहीं है... इसलिए हमें उड़ने दीजिए... हमारी कल्पनाओं को पंख लगने दीजिए... हम उंचे उडेंगे तो बाकि का सर हमें देखने के लिए खुद ही उपर उठ जाएगा. 

9 Jan 2016

राजा से ताकतवर है वज़ीर

"वज़ीर" इस फिल्म के प्रोमो आने के बाद से मैं इस फिल्म को देखने की सोच रहा था. अक्सर फिल्म देखना मेरा पसंदीदा शगल है. लेकिन ऐसा बहुत कम होता है कि मैं फिल्म देखने के बाद उस पर लिखूं. ऐसा मैं तब ही करता हूं जबकि वो फिल्म मुझे ऐसा करने पर मजबूर कर देती है. मेरी नजर में वज़ीर एक ऐसी ही फिल्म है. सबसे पहले तो मैं इस फिल्म की लंबाई कम रखने के लिए निर्देशक को दाद देता हूं. बेहद कम समय में कहानी कहना भी एक कला है. इतनी सशक्त फिल्म देखने का अपना ही मजा है. अगर फिल्म के दौरान आपने 3-4 फोन कॉल ले ली तो समझिए आप कहानी में काफी कुछ मिस करने वाले हैं. और ये इस फिल्म की एक बड़ी खूबी है.


वज़ीर, जैसा कि फिल्म का नाम है ये अपने नाम के अनुरूप शतरंज के मोहरों के इर्द गिर्द घूमती है. और इसका मुख्य नायक भी वजीर ही है. फिल्म की शुरूआत ही एक गाने से होती है. ये असामान्य तो नहीं लेकिन अचरज भरा जरूर है. लेकिन एक ही गाने में पूरे भावों को स्थापित कर फिल्म की तेजी से आगे बढ़ाया गया है. शुरूआती घटनाक्रमों में तेजी है और इतनी कि आपको ये लगातार ये बांधे रखेगी. हादसों से ही फिल्म की कड़ी आगे बढ़ती है. अमिताभ बच्चन का फरहान अख्तर से पहली बार मुलाकात का सीन बता देता है कि कितनी शिद्दत से अमिताभ को फरहान की जरूरत है. फिर इस फिल्म में आती है वो बात जिसके लिए ही फिल्म बनी है. एक मर्डर जिसे दुर्घटना बता दिया गया है.

वजीर एक ऐसी फिल्म है जिसमें आप आंकलन तो लगा सकते हैं लेकिन फिल्म के राज को पकड़ लें ये इतना आसान भी नहीं है. मैंं इस फिल्म को देखकर अपनी उस बात पर और कायम होता जा रहा हूं कि जैसे-जैसे अमिताभ बच्चन की उम्र बढ़ रही है, वैसे-वैसे वो अपनी एक्टिंग से मुझे अपना कायल बनाते जा रहे हैं. अमिताभ इस फिल्म की जान हैं. वो सबसे मजबूत किरदार भी है. वो एक ऐसा किरदार निभा रहे हैं जिनसे आप काफी कुछ सीख सकते हैं. फरहान ने भी जबरदस्त काम किया है और अदिति राव हैदरी के अलावा शायद उनके किरदार को कोई और नहीं कर सकता था. मानव कौल ने अपना काम पूरी सौ फीसदी ईमानदारी से किया है. हालांकि जॉन अब्राहम इस फिल्म में ना होते तो शायद कोई फर्क नहीं पड़ता. लेकिन कुछ मिनटों के लिए आने वाले नील नितीन मुकेश को आप भूल नहीं सकते हैं.

फिल्म जैसे-जैसे दूसरे हाफ में जाती है हम फिल्म के अंत का अंदाजा लगाने लग जाते हैं. एक जबरदस्त विलेन, एक मजबूत हीरो, एक बेहद संकल्पित किरदार, एक संभालने वाली अदाकारा और परेशान करने वाला छुपा छुपा सा लेकिन बेहद ताकतवर दुश्मन. एक ही हालात के मारे दो लोग जब दोस्त बन जाते हैं तो कोई नहीं जान सकता कि ये एक मतलबी दोस्ती हो सकती है. सब अच्छा हो रहा होता है. विलेन भी यूं लगने लगता है कि पकड़ा जाएगा. लेकिन ये आम हिंदी फिल्म तो है नहीं. तो एकदम से अमिताभ बच्चन का चले जाना एक टीस छोड़ देता है. मुंह से अफसोस के शब्द निकल जाते हैं और एक बेबसी छा जाती है. फिल्म फिर तेज होती है और एक ऐसे सच के पास पहुंचती है जो करीब-करीब सबको पता होता है. लेकिन यहीं खत्म होती सी दिखाई देती फिल्म फिर एक सबसे बड़े खुलासे को तैयार होती है.

शतरंज का प्यादा कैसे वजीर बन जाता है ये फिल्म के अंत में समझ आता है. जो शिद्दत से खोजा जा रहा है वो है ही नहीं और जो है वो क्यों है लोगों के मन में ये सवाल आते हैं. एक कैमरे के सामने अभिनय करते अमिताभ इतने सजीव लगते हैं कि वो वापस आने की बात भी सुन लेंगे. जो सच सामने आता है वो ताज्जुब तो देता है ही साथ ही एक कड़वा सच भी सामने लाता है. कुल मिलाकर एक अच्छी कहानी, बेहद कसी हुई फिल्म देखने के लिए वजीर वास्तव में एक बेहतरीन विकल्प है. ये कई बार तो नहीं लेकिन खुले दिमाग के साथ एक बार जरूर देखी जानी चाहिए.

वास्तव में वजीर घोर मनोरंजक फिल्म होते हुए भी कुछ बता जाती है. बताती है कि कैसे किसी बेबस को असली इंसाफ पाने के लिए तराजू के एक पलड़े में अपनी जिंदगी रखनी पड़ती है. बताती है कि कैसे मकसद को पाने के लिए दोस्ती में भी मतलबी होना पड़ता है. बताती है कि कैसे जिंदगी में कुर्बानी ही कुछ बड़े फैसलों का कारण बनते हैं. कुछ दृशयों के घोर काल्पनिक होने के बावजूद मैं उस पर उस वक्त सवाल इसलिए नहीं उठा पाता हूं क्योंकि वो उस वक्त जरूरी लगते हैं. कश्मीर की जिस बात को पेश किया गया है उसमें सबकुछ गलत नहीं लगता और हम उसे इसलिए स्वीकार लेते हैं क्योंकि ये हो सकता है. 

लेकिन फिर भी, मतलब निकालने से इतर खुद के मतलब के लिए भी वजीर को देखा जाना चाहिए. फिल्म अच्छी है साथ ही गाने भी ठीक हैं. खासकर शुरूआत और अंत. दोनों ही गानों से होती है और ऐसे गानों से जिसे आप और मैं गुनगुनाते हुए सिनेमा हॉल के बाहर निकलते हैं. तो इस प्यादे की ओर से वजीर को तारीफ की शह और फ्लॉप होने के डर को मात.

13 Sept 2015

गुरूजी, टीचरों का ख्याल रखिए आप…

5 सितंबर, वो दिन जिसे स्कूल में जाने वाला हर बच्चा जरूर जानता है. इस दिन जब वो या तो अपने स्कूल में होने वाले किसी कार्यक्रम को लेकर उत्साहित रहता है या फिर एक बेझिल कार्यक्रम समझ कर सिर्फ खानापूर्ति करता है. लेकिन एक ऐसे देश में जहां की संस्कृति और संस्कार शिक्षकों को, गुरूओं को विशेष सम्मान और स्थान देने की बात करती हो वहां शिक्षक दिवस को सिर्फ खानापूर्ति के तौर पर निपटाने की परंपरा बनी चली आ रही थी. वो गुरू जो कि किसी शिष्य के जीवन को बदल देता है और सार्थक बना देता है उसके सम्मान के लिए सिर्फ एक दिन का चुनाव वो भी स्कूली इवेंट बनाकर खत्म कर देना इस मार्गदर्शक के साथ न्याय नहीं है.

5 सितंबर पर शिक्षकों की महिमा से जुड़ा लिखा काफी कुछ आपको मिल जाएगा लेकिन 5 सितंबर की तैयारी किसी नेशनल चैनल की हेडलाइन हो ये पहले नहीं होता था. परिवर्तन संसार का नियम है और शिक्षक दिवस खुद इसी परिवर्तन का गवाह बना है. स्कूलों में होने वाले इवेंट से बदलकर ये दिन अब देश में राष्ट्रीय इवेंट के तौर पर मनाया जाता है. पिछले साल से आए इस बदलाव का पूरा श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जाता है जिन्होंने इस दिन को राष्ट्रीय महत्व का बनाने की कोशिश की और वो उसमें पूरी तरह कामयाब भी हो गए. इस बार के शिक्षक दिवस को पिछली बार से भी ज्यादा बेहतर तरीके से मनाया गया. ना सिर्फ प्रधानमंत्री बल्कि इस बार राष्ट्रपति भी बच्चों के बीच गए और शिक्षक दिवस पर अपना समय बिताया.

व्यक्तिगत रूप से मैं इस पहल को अच्छा मानता हूं. वो गुरू जो किसी की जिंदगी बना दे खुद उसकी जिंदगी गुमनामी में बीतती जा रही थी. लेकिन इस राष्ट्रीय इवेंट मात्र से हमें खुश नहीं होना चाहिए. हमें ये भी देखना होगा कि इस इवेंट से क्या शिक्षकों की जिंदगी में, उनकी भूमिका में और उनके सम्मान में कोई फर्क पड़ पा रहा है या नहीं. हालांकि प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति ने शिक्षक दिवस पर एक शिक्षक की भूमिका निभाकर इस दिन की महत्ता को जरूर बढ़ा दिया है. लेकिन ये काफी भी नहीं है. दरअसल गुरू की जो महत्ता इस देश की संस्कृति में दी गई थी उस गौरव तक पहुंचने में हमें शायद कई साल लग जाएंगे. लॉर्ड मैकाले की शिक्षा व्यवस्था ने देश की व्यवस्था को ही बदल कर रख दिया है. लेकिन अब जो बदलाव आया है वो निश्चित रूप से सकारात्मक जरूर नजर आ रहा है.

मोदी जी ने पिछले साल जब शिक्षक दिवस मनाया था तो कई विषयों को उठाया था और इस बार भी उन्होंने ऐसा ही किया है. स्वच्छ भारत अभियान से लेकर बेटी पढ़ाओ तक की बातें उन्होंने किसी ना किसी रूप में कहीं. लेकिन सबसे जरूरी तुलना जो मैं करना जरूरी समझता हूं वो ये कि जो बात उन्होंने पिछले साल कही थी क्या वो उससे एक कदम भी आगे बढ़ सके हैं? क्या अब देश में शिक्षकों की हालत में कुछ सुधार हुआ है? क्या अब कोई छात्र शिक्षक बनना चाहता है? क्या उन सारे सवालों का जवाब हमें मिला है? इस बार बच्चों से बात करते वक्त पीएम मोदी ने बच्चों को योग के शिक्षक बनने का सुझाव दे दिया. लेकिन पिछली बार के शिक्षक एक्सपोर्ट करने की बात पर हर जगह अपने काम का हिसाब देने वाले पीएम मोदी ने इस बार अपनी इस बात का कोई हिसाब नहीं दिया. शायद हिसाब देने लायक आंकड़े उनके पास ना हों या फिर वो हिसाब देने का सोच कर ही ना आए हों. हिसाब देना जरूरी नहीं है. जरूरी ये है कि जिस मकसद से और जितनी बातों को बोलकर शिक्षक दिवस मनाने की बात की गई वो बातें पूरी हो पा रही हैं या नहीं.

हालांकि कड़वी सच्चाई ये है कि देश में पिछले एक साल में भी शिक्षक बनने के लिए कहीं कोई जागृति नजर नहीं आई. अब सरकारी नौकरी के लिए निकले विज्ञापनों पर आए आवेदनों को आधार ना मानें, वो हमेशा ज्यादा ही रहेंगे. जिस तरह चावल के पकने के लिए एक दाना ही जांचा जाता है ठीक उसी तरह जितने बच्चों ने पीएम मोदी से बात की उनमें से किसी एक ने भी प्रधानमंत्री मोदी से ये नहीं कहा कि वो शिक्षक बनना चाहते हैं. पीएम मोदी ने भले ही बच्चों से ये जरूर कहा हो कि शिक्षक बनो लेकिन उनमें से किसी की भी सोच प्रधानमंत्री से बात करके भी नहीं बदली. इस बार पीएम मोदी ने एक नया कॉन्सेप्ट भी लोगों को दिया खासकर बच्चों को वो ये कि वो योग के शिक्षक बनकर विदेशों में टीचर एक्सपोर्ट करना चाहिए. लेकिन क्या पीएम साहब अपने पिछले बार के कॉन्सेप्ट को भी जमीन पर उतारने में कामयाब रहे हैं?

मेरे ख्याल से इस सवाल का जवाब ना में है. क्योंकि प्रधानमंत्री ने पिछली बार बच्चों से शिक्षक बनने की बात कही थी जो इस बार कहीं भी साकार होती नजर नहीं आई. हालांकि इस बार सोच में बदलाव जरूर देखने को मिला लेकिन सोच से ज्यादा जमीनी हकीकत बदलनी चाहिए. जब पीएम ने एक बच्चे से जोर देकर पूछा तब भी वो नहीं माना कि वो शिक्षक बनना चाहेगा. हालांकि इस बार शिक्षक दिवस को मिले सम्मान ने देश में एक सकारात्मक माहौल बनाने का काम किया है. शिक्षक खुद को मिले इस सम्मान से खुश हैं तो वहीं देश के आम लोग भी शिक्षकों की महत्ता को आंक रहे हैं. लेकिन इतना काफी नहीं है सर, पूर्णता कहीं नहीं आती. लेकिन शिक्षक दिवस पर आप बच्चों को महत्व दे रहे हैं ना कि शिक्षकों को. एक बार शिक्षक से पूछ के देखिए कि शिक्षक बन कर कैसा लगता है. बुनियादी सवाल अब भी वही है कि शिक्षक को हम किस रूप में देखते हैं. एक वेतनभोगी कर्मचारी मात्र. हालांकि नरेंद्र मोदी ने एक बात सही कही कि आज देश में जो भी सफल छात्र हैं उनके पीछे भी एक शिक्षक ही है और ऐसे शिक्षकों से ही आज हमारा देश चल रहा है.

पीएम साहब, शिक्षक दिवस पर आपको एक टीचर के रूप में दिखाया गया. तो क्या आप अपने इस छात्र के कुछ सवालों का जवाब देंगे? सवाल ये कि जिस पेशे को आप सम्मान के साथ ही विदेशों में भी ख्याति दिलवाना चाहते हैं उसके साथ कब तक एक वेतनभोगी कर्मचारी जैसे सम्मान को बंद किया जा सकेगा? हमारे देश में सेना की एक संगठन के रूप में इज्जत और मान दोनों है लेकिन शिक्षकों के संगठनों पर इस देश के कोने कोने में लाठियां चलना आम बात है. वो शिक्षक जो अपने हक को पाने में संघर्ष कर रहे हैं कैसे किसी छात्र को जीवन में संघर्ष करना सिखा सकते हैं? कब तक शिक्षक को इस देश में, व्यवस्था में एक पूरक माना जाएगा? कोई काम हुआ और कोई सरकारी नौकर ना मिला तो उसके बदले शिक्षक को लगा देने की व्यवस्था रोकने के लिए कोई उपाय कर रहे हैं आप? आप बच्चों के सवालों का जवाब देते हैं, खासकर निजी जिंदगी से जुड़े. लेकिन क्या आपने कभी शिक्षकों से जानने की कोशिश की है कि देश के सुदूर गावों में जीवन यापन के लिए स्कूलों में सीमित संसाधनों में बच्चे को पढ़ाने वाले शिक्षक का निजी जीवन कैसा होता है? ये जरूरी है क्योंकि ये जैसे होंगे वैसा ही कल ये तैयार करेंगे.


कोई छात्र शिक्षक बनने का विकल्प क्यों नहीं चुनता ये आप भी भली भांति जानते हैं और इस देश का हर एक छात्र भी. प्रधानमंत्री जी, इस देश में हर पल कुछ सीख रहे इस छात्र की सिर्फ इतनी विनती है आपसे कि शिक्षकों को जो दर्जा दिलाने की आप बात करते हैं उस दिशा में कुछ ठोस पहल कीजिए सर. आप हिसाब देते हैं, और मैं और कई और आपसे इस विषय पर सकारात्मक हिसाब की उम्मीद रखते हैं. निश्चित तौर पर मुझे सर्वश्रेष्ठ शिक्षक मिले, लेकिन उनको देखते हुए ही मैं ये कहना चाहता हूं कि जो मेरे जीवन की नींव बने, उनके जीवन की आर्थिक नींव बेहद हिली हुई होती है सर. ना तो इन पर लाठियां चलने दें और ना ही इन्हें चंद रूपयों में तौलें. बाकि हां सर, अगर आप शिक्षकों का भरोसा जगा रहे हैं और देश का पहला व्यक्ति बच्चों की क्लास ले रहा है तो ये जरूर एक अच्छी शुरूआत है लेकिन जो रास्ता तय करना है उस रास्ते की नहीं मुझे उस मंजिल के खूबसूरत होने का इंतजार है. 

29 May 2015

मुझे प्रेमी से प्यार है

इस ब्लॉग का टाइटल कुछ अजीब लग रहा है, लेकिन इसका मतलब समलैंगिकता से बिल्कुल नहीं है. दरअसल फिल्म 'तनु वेड्स मनु 2' देखने के बाद से सोच रहा था कि कई दिन बाद फिल्म रिव्यू लिखूंगा. लेकिन इस फिल्म के बारे में इतना कुछ लिखा जा चुका है और इतना कुछ लिखा जा रहा है कि शायद मेरे लिखने के लिए जगह ना बचे. लेकिन फिर भी कुछ लिखने को दिल चाह रहा था. काफी समय बाद एक ऐसी फिल्म देखने को मिली जिसे देखते हुए चेहरे पर एक मुस्कुराहट कायम रहती है. अब रही बात रिव्यू की तो वो मैं सिर्फ फिल्म पर नहीं लिखना चाह रहा था. फिल्म को पसंद करने का मेरा सबसे बड़ा कारण था फिल्म के किरदार, तो मैनें सोचा कि क्यों ना एक ब्लॉग सिर्फ ऐसे किरदारों पर लिख दिया जाए. और हां इसी कारण मैंने लिखा कि मुझे प्रेमी से प्यार है. मनु शर्मा का किरदार मेरे लिए इस फिल्म को देखने का सबसे बड़ा कारण था.

मुझे नहीं पता कि कितने लोग ऐसा करते हैं लेकिन आमतौर पर मैं फिल्मों से, खासकर उनके किरदारों से एक जुड़ाव महसूस करने की कोशिश करता हूं. अमूमन ऐसा हो नहीं पाता क्योंकि जिंदगी में सबकुछ फिल्मी नहीं होता. लेकिन मनु शर्मा का किरदार एक ऐसा किरदार है जिससे मैं काफी जुड़ाव पाता हूं. हालांकि ना तो मैं उसकी तरह शादी शुदा हूं, और ना ही शादी करने वाला हूं. लेकिन फिर भी जिस निस्वार्थ प्रेम को मनु शर्मा ने दिखाया है मैं उसे पसंद करता हूं. मैं पसंद करता हूं उस सादगी को जो सिर्फ लड़की के चेहरे पर मुस्कुराहट देखना चाहता है. फिल्म की पहली सीरीज तो आपको याद होगी ही. कैसे मनु शर्मा पूरी शिद्दत से तनुजा त्रिवेदी की पसंद से शादी कराना चाहता है. खुद के चेहरे पर जब भी हंसी लाने की कोशिश करता है आंखो से पानी निकालने में जरूर कामयाब होता है. कैसे वो छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखता है लेकिन छोटी से छोटी बात बोलने में भी घबराता है. दरअसल हम जिस सोच के साथ बड़े होते हैं वहां ये अजीब हो सकता है कि कोई लड़का ऐसा कैसे कर सकता है, लेकिन इसीलिए मुझे इससे जुड़ाव महसूस होता है. हमेशा खुद को किसी के सामने पेश कर देना आसान नहीं होता भले ही आप कई हजार शब्दों का जाल बुन सकते हों.

'तनु वेड्स मनु 2' में जब फिल्म के आखिर में मनु शर्मा आखिरी फेरे से पहले रुक जाता है वो तब भी नहीं कह पाता कि ये उससे नहीं होगा, जब तक कि उससे पूछा ना जाए. और माधवन के कैरेक्टर की यही खासियत है. वो जो कर रहा है सिर्फ इसलिए करे जा रहा है क्योंकि उसने कहा है कि वो ऐसा करेगा. जब माधवन मनु शर्मा के रूप में कहते हैं कि नहीं हो पा रहा है तो हर वो 'लड़का' जो अपनी जुबान के कारण दिल के राज दबाए रह जाता है खुद को उस आखिरी फेरे पर खड़ा पाता है जहां वो ये नहीं कह सकता कि उससे नहीं हो पाएगा. दरअसल फिल्म की तरह जिंदगी में भी कई ऐसे मोड़ आते हैं जहां हम उम्मीद करते हैं कि कोई हमें समझ लेगा क्योंकि हम चुपचाप उसे समझे जा रहे हैं. हम भी हर उस शख्स से उम्मीद लगा रखते हैं कि वो हमसे पूछेगा कि क्या हुआ शर्मा जी? जो हमारी नजरों में, हमारे दिल में बेहद खास होता है. 

फिल्म के निर्देशक आनंद एल राय को किसी इंसान के खासकर लड़कों के इमोशन से खेलना आता है. हमेशा ये इमोशन से खेलने वाली लाइन हम लड़कियों के लिए सुनते आए हैं लेकिन मैं ये लाइन सोच समझकर आनंद के लिए इस्तेमाल कर रहा हूं. देसी भाषा का जो तड़का वो अपनी फिल्मों में लगाते हैं वो लाजवाब है. आनंद कि फिल्म में दोस्ती से लेकर प्रेमी तक का किरदार इतना मजबूत और सहज होता है कि हम उससे जुड़े बिना नहीं रह पाते. आनंद की किरदारों पर पकड़ याद दिलाने के लिए मैं उनकी फिल्म 'रांझणा' की बात भी करूंगा. कैसे धनुष जैसे एक हीरो को जो कि शायद किसी आम हिंदी फिल्म के लिए जमता ना हो उन्होंने फिल्म की जान बना दिया. इसमें पूरा योगदान धनुष की दमदार एक्टिंग को भी जाता है. लेकिन आनंद का काम लाजवाब है.

मुझे नहीं पता कि आपकी पसंद क्या है. लेकिन लड़के हमेशा मजबूत, फौलादी, एक मुक्के से चार-पांच को ढेर करने वाले, हैंडसम नहीं होते. लड़कों की एक बड़ी जमात है साहब जो अपनी भावनाएं अपने अंदर दबा कर रख जाती है. जिससे कहना हो उसे छोड़कर वो अपनी बात सारों से कह सकते हैं. जिसे चाहते हैं उसके लिए सबकुछ कर जाते हैं और ये सोचते हैं कि वो सब समझ रही है. जिनके लिए लड़की के साथ होना सिर्फ टहलना नहीं होता. लड़के भी रोते हैं, वो भी अपनी चाहत बताने में डरते हैं. लेकिन हां वो अपनी चाहत के लिए कुछ भी करने को तैयार होते हैं जिसमें दर्द उन्हें होगा और हार भी उनकी. लेकिन किसी और कि जीत से ज्यादा उन्हें एक खास चेहरे पर सिर्फ एक मुस्कुराहट की फिक्र होती है. 

तो इस बिरादरी को पर्दे पर लाने के शुक्रिया राय साहब. हां हम हमेशा रूखे और सीधी बात कहने वाले नहीं होते, ये दिखाने के लिए शुक्रिया. चाहत हममें भी होती है लेकिन इस चाहत को हम कह पाने में देर कर जाते हैं ये बताने का शुक्रिया. और सबसे बड़ी बात कि मनु शर्मा (तनु वेड्स मनु), कुंदन (रांझणा) अरूण (ये साली जिंदगी) ये ऐसे किरदार हैं या यूं कहें कि ये ऐसे प्रेमी हैं जो ये बताते हैं कि प्यार का मतलब सिर्फ पाना नहीं होता... और हां मुझे ऐसे प्रेमी से प्यार है.